Tuesday, July 27, 2021

हरेला प्रकृति के साथ रिश्तो का पर्व

 हरेला मूल रूप से उत्तराखण्ड  के कुमाऊँ क्षेत्र में मनाया जाता है। हरेला पर्व 1 साल में तीन बार मनाया जाता है..........

1. पहली बार चैत्र महीने में पहले दिन बोया जाता है और नवमी के दिन काटा जाता है।

2. दूसरा सावन के महीने में सावन लगने के 9 दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और सावन महीने के पहले दिन काट दिया जाता है।

3. तीसरा अश्विन माह में नवरात्र के पहले दिन बुरा जाता है और दशहरे के दिन काट दिया जाता है।

चैत्र और आश्विन महीने में मौसम का सूचक है-



    लेकिन श्रावण माह में मनाये जाने वाला हरेला सामाजिक रूप से अपना विशेष महत्व रखता तथा समूचे कुमाऊँ में अति महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक माना जाता है। जिस कारण इस अन्चल में यह त्यौहार अधिक धूमधाम के साथ मनाया जाता है। जैसाकि हम सभी को विदित है कि श्रावण माह भगवान भोलेशंकर का प्रिय माह है, इसलिए हरेले के इस पर्व को कही कही हर-काली के नाम से भी जाना जाता है। क्योंकि श्रावण माह शंकर भगवान जी को विशेष प्रिय है। यह तो सर्वविदित ही है कि उत्तराखण्ड एक पहाड़ी प्रदेश है और पहाड़ों पर ही भगवान शंकर का वास माना जाता है। इसलिए भी उत्तराखण्ड में श्रावण माह में पड़ने वाले हरेला का अधिक महत्व है। दैनिक जागरण रुद्रपुर के पत्रकार मनीस पांडे ने बताया कि हरेला पर्व उत्तराखंड के अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश में भी हरियाली पर्व के रूप में मनाया जाता है। हरियाली या हरेला शब्द पर्यावरण के काफी करीब है। ऐसे में इस दिन सांस्कृतिक आयोजन के साथ ही पौधारोपण भी किया जाता है। जिसमें लोग अपने परिवेश में विभिन्न प्रकार के छायादार व फलदार पौधे रोपते हैं।

    सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में हरेला बोने के लिए किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी का चयन किया जाता है। इसमें मिट्टी डालकर गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि 5 या 7 प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह को पानी छिड़कते रहते हैं। दसवें दिन इसे काटा जाता है। 4 से 6 इंच लम्बे इन पौधों को ही हरेला कहा जाता है। घर के सदस्य इन्हें बहुत आदर के साथ अपने शीश पर रखते हैं। घर में सुख-समृद्धि के प्रतीक के रूप में हरेला बोया व काटा जाता है! इसके मूल में यह मान्यता निहित है कि हरेला जितना बड़ा होगा उतनी ही फसल बढ़िया होगी! साथ ही प्रभू से फसल अच्छी होने की कामना भी की जाती है।



हरेला गीत

इस दिन कुमाऊँनी भाषा में गीत गाते हुए छोटों को आशीर्वाद दिया जाता है –

जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये,
हिमाल में ह्यूं छन तक,
गंग ज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये,
अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो।”

Tuesday, March 3, 2020

कुमाऊंनी होली एक परंपरा विरासत ऐतिहासिक उत्सव

 कुमाऊनी होली

 उत्तराखंड राज्य में कुमाऊं क्षेत्र में होली का त्यौहार एक अलग अंदाज में मनाया जाता है। कुमाऊं क्षेत्र में होली का अलग ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व है। पहाड़ी क्षेत्रों में इस समय सर्दी के मौसम का अंत होता है और नई फसल की बुवाई का समय होता है। कुमाऊं क्षेत्र में होली का त्योहार बसंत पंचमी के दिन शुरू हो जाता है ।


होली  के प्रकार

कुमाऊं में होली तीन प्रकार से मनाई जाती है - 1. बैठकी होली 2. खड़ी होली 3. महिला होली यहां होली में केवल अबीर गुलाल का टीका ही नहीं लगता, वरन बैठकी होली और संगीत गायन की परंपरा का भी विशेष महत्व है।

 इतिहास

 कुमाऊनी होली का आरंभ मुख्य रूप से 15 वी शताब्दी में चंपावत और इसके आसपास के क्षेत्र में  चंद राजाओं के शासनकाल में हुई चंद राजवंश के प्रसार के साथ-साथ यह परंपरा संपूर्ण कुमाऊं क्षेत्र में फैल गई।

 बैठकी होली

 बैठकी होली मुख्य रूप से अल्मोड़ा और नैनीताल के मुख्य बड़े नगरों में ही मनाई जाती है, इसमें होली आधारित गीत हारमोनियम और ढोलक के साथ गाए जाते हैं। पुरुष और महिलाएं एक साथ मिलकर घरों-घरों में घूम कर अथवा किसी एक जगह एकत्रित होकर होली गीतों का गायन करते हैं। कुमाऊं के प्रसिद्ध जनकवि गिरीश गिर्दा ने बैठकी होली के कई गीत लिखे हैं, बैठकी होली में मुख्य रूप से मीराबाई से लेकर नजीर और बहादुर शाह जफर के गीत गाए जाते हैं।


 खड़ी होली 

होली त्यौहार के कुछ दिन पहले से खड़ी होली होती है।  कुमाऊं क्षेत्र की खड़ी होली पूरे भारतवर्ष में चर्चित है इसका प्रसार कुमाऊं के ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलता है, इसमें ग्रामीण पुरुष टोपी और कुर्ता पजामा पहन कर ढोल दमाऊ तथा हुड़के की धुनों पर गीत गाते हैं और नाचते हैं। खड़ी होली के अधिकांश गीत कुमाऊनी भाषा में  होते हैं। होली गाने वाला दल जिन्हें स्थानीय भाषा में होल्यार कहा जाता है, बारी-बारी से गांव के प्रत्येक घर में जाकर होली गीत गाते हैं और उनकी समृद्धि की कामना करते हैं।



 महिला होली 

महिला होली में बैठकी होली की तरह गीत गाए जाते हैं, लेकिन इसमें केवल महिलाएं ही घर-घर जाकर होली गीत गाती हैं। यह कुमाऊं के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में अत्यधिक प्रचलित है।


 चीड़ बंधन 

होलिका दहन के लिए कुमाऊं में छरड़ी के कुछ दिन पहले चीड़ की लकड़ियों से होलिका का निर्माण किया जाता है। जिसे चीड़ बंधन कहा जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में चीड़ बंधन के बाद अपने होलिका की रक्षा अन्य गांव के लोगों से करनी पड़ती है, ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित है दूसरे गांव की होलिका से चीड़ की लकड़ियां चुरा ली जाती हैं।

 चीड़ दहन 

 मुख्य होली के 1 दिन पहले रात को होलिका दहन किया जाता है, जिसे चीड़ दहन कहा जाता है, चीड़ दहन प्रहलाद की हिरण्यकश्यप के विचारों पर जीत का प्रतीक माना जाता है।


 छरड़ी  (छलेड़ी  धुलेड़ी)

   यह मुख्य होली का दिन है इस दिन गांव के लोग एक दूसरे पर रंग अबीर गुलाल लगाते हैं,  पारंपरिक तौर पर टेसू के फूलों को धूप में सुखाकर पानी में घोला जाता है जिससे लाल रंग का छरड़ प्राप्त होता है, जिससे कुमाऊं क्षेत्र में होली खेली जाती है। इसीलिए कुमाऊं में होली को छरड़ी कहा जाता है


 होली के अगले दिन होली टीका त्योहार मनाया जाता है इस दिन घरों में पकवान बनाए जाते हैं।

माता का ऐसा शक्ति पीठ जिसकी मूर्ति को आज तक किसी ने नहीं देखा मां बाराही देवी मंदिर लोहाघाट चंपावत


माता का ऐसा शक्ति पीठ जिसकी मूर्ति को आज तक किसी ने नहीं देखा मां बाराही देवी मंदिर लोहाघाट चंपावत

 उत्तराखंड राज्य के चंपावत जिले में लोहाघाट नगर से 60 किलोमीटर की दूरी पर घने जंगल के मध्य स्थित देवी मां का यह मंदिर भारतवर्ष के 52 शक्तिपीठों में से एक है मां बाराही देवी शक्ति पीठ जिसे देवीधुरा मंदिर के नाम से भी जाना जाता है समुद्र तल से अट्ठारह सौ 50 मीटर ब्रैकेट लगभग 5000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है
maa barahi devi mandir 

 इतिहास-

    उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में चंद्र राजाओं के शासनकाल में मां चंपा देवी और ललित जिह्वा मां काली की स्थापना की गई। लाल जीभ वाली महाकाली को महर और फर्त्याल जाति के लोगों द्वारा प्रतिवर्ष बारी-बारी से नर बलि दी जाती थी कालांतर में रोहेलो के आक्रमण के समय कत्यूरी राजाओं द्वारा मां बाराही की मूर्ति को घने जंगल के मध्य एक गुफा में स्थापित कर दिया गया था। वर्तमान में इसके चारों ओर गांव बस गया है मां बाराही मंदिर के आसपास कई छोटे-बड़े ग्रेनाइट के शिलाखंड फैले हैं, जिनके बारे में बताया जाता है कि भीम द्वारा बाल क्रीड़ा के दौरान या पत्थर फेंके गए थे। कुछ  शिला खंडों पर अभी भी उंगलियों के निशान दिखाई देते हैं मंदिर के निकट दो विशाल पत्थर हैं जिनमें से एक का नाम रामशिला है इस स्थान पर पचीसी नामक जुए के चिन्ह आज भी  विद्यमान है।
गुफा द्वार

                                                      

मां बाराही देवी मंदिर की पौराणिक कथा-

 ऐतिहासिक ग्रंथों के अनुसार इस स्थान पर गुह्य काली की उपासना का केंद्र था। इस स्थान पर काली को प्रसन्न करने के लिए वालिक, लमगड़िया, चम्याल गहडवाल खामों के महर एवं फर्त्याल जाति के लोगों द्वारा प्रतिवर्ष बारी-बारी से नर बलि दी जाती थी। मान्यताओं के अनुसार एक बुजुर्ग की तपस्या से प्रसन्न होने के बाद नर बलि की प्रथा को बंद कर दिया गया। यहां स्थापित देवी मां की मूर्ति को तांबे की पेटी में रखा गया है जिससे जिसे आज तक किसी व्यक्ति ने खुली आंखों से नहीं देखा गया है ऐसा माना जाता है कि देवी मां की मूर्ति को खुली आंखों से देखने पर उसके तेज से इतनी रोशनी निकलती है कि व्यक्ति अंधा हो जाता है।



बग्वाल (पत्थर मार युद्ध) 

सावन माह में रक्षाबंधन के दिन देवी मां की मूर्ति का श्रंगार पुजारियों द्वारा आंखों में काली पट्टी बांधकर किया जाता है रक्षाबंधन के दिन प्रतिवर्ष 4 खामों द्वारा बग्वाल (पत्थर मार युद्ध) का आयोजन किया जाता है इस युद्ध के दौरान एक व्यक्ति के शरीर जितना रक्त बहने तक पत्थरों से युद्ध किया जाता है वर्तमान में प्रशासन द्वारा युद्ध केवल फूल और फलों द्वारा आयोजित करवाया जाता है।

Friday, August 2, 2019

The Story About Garhwal Painting History प्रसिद्ध चित्रकार मौला राम Molaram

The Story About Garhwal Painting History  प्रसिद्ध चित्रकार  मौला राम Molaram  



 नाम- मौला राम तोमर. 
 जन्म- 1743,  (श्रीनगर गढ़वाल).
 पिता- मंगतराम.  
 माता- रमा देवी.
 पेशा-  चित्रकार  साहित्यकार इतिहासकार राजनीतिज्ञ.
 पारिवारिक पेशा- स्वर्णकार.
 मृत्यु- 1833  (श्रीनगर गढ़वाल).




        उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में चित्रकला की एक अनूठी शैली है, जो कई सदियों से चली आ रही है। विख्यात चित्रकारों में एक नाम #मौला राम का है। माई 1658 में दारा शिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह, औरंगजेब के डर से भाग कर गढ़वाल नरेश की शरण में आ गए। तब वह अपने साथ 2 चित्रकारों को भी लाए कुंवर श्यामदास और उनके पुत्र हरदास के पुत्र हीरालाल हुए और हीरालाल के पुत्र मंगतराम हुए मंगत राम के पुत्र मौला राम हुए मौला राम के पुरखों ने गढ़वाल चित्रकला को संरक्षण और संवर्धन दिया।
        मौला राम दिल्ली के प्रसिद्ध चित्रकार श्याम दास की पांचवी पीढ़ी में जन्मे थे। इनका जन्म श्रीनगर गढ़वाल में हुआ। इनके पिता मंगतराम और माता रमा देवी पैसे से स्वर्णकार थे, इन्होंने अपने पिता से स्वर्ण कला के साथ-साथ चित्र कला भी सीखी। मौलाराम की कलाकृतियां आज भी हमारे गौरवशाली इतिहास की समृद्धि को  पुष्ट कर रही हैं। इनके चित्रों में हिमालय की छटा गढ़वाली पशु-पक्षियों और वृक्षों की शोभा तथा नदियों की पवित्रता का चित्रण है। अमेरिका के प्रसिद्ध बोस्टन संग्रहालय में मौला राम के उत्कृष्ट कला चित्र आज भी शोभा बढ़ा रहे हैं। इससे पूर्व 1947 में इनकी चित्रकला को विश्व चित्रकला प्रदर्शनी में लंदन में दिखाया जा चुका है। मौला राम को वर्तमान समय में प्रकाश में लाने का मुख्य श्रेय बैरिस्टर मुकुंदी लाल को जाता है। मुकुंदी लाल ने सन 1968 में इनके जीवन के ऊपर एक पुस्तक गढ़वाल पेंटिंग्स लिखी, जिसे 1969 में भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित किया गया।

मालाराम जी की पेंटिंग
        चित्रकार के साथ-साथ मौला राम अपने कालखंड के श्रेष्ठ साहित्यकार, इतिहासकार, कुशल राजनीतिज्ञ भी रहे हैं। मौला राम संतों, नाथों और सिद्धों से बहुत प्रभावित थे। उनका एक काव्य मन्मथ पंथ यही सिद्ध करता है। मौला राम के 7 हस्तलिखित काव्य भी प्राप्त हुए हैं। गढ़ राजवंश इनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है। उत्तराखंड के मूर्धन्य इतिहासकार डॉ शिव प्रकाश डबराल 'चारण' की खोज के अनुसार मौला राम के अब तक 35 हिंदी काव्य खोजे जा चुके हैं। 
ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित काव्य 12 है।
पौराणिक आख्यानों पर आधारित काव्य 6
संतों पर लिखे काव्य 10।
राष्ट्रीय उद्यान संबंधी काव्य 3
नीति एवं श्रृंगार काव्य 4 हैं

माैलाराम जी द्वारा बनाए हुए कुछ चित्र

 





      मौला राम ने गढ़वाल के 4 राजाओं के शासनकाल में कार्य किया, महाराजा प्रदीप साह (1717-1722)  ललित साह (1722-1780), जयकृत शाह (1780-1785),  प्रद्युमन शाह ( 1785-1804) राजाओं ने इन्हें पर्याप्त प्रोत्साहन और संरक्षण दिया। मौला राम अपने 93 वर्षीय जीवन काल के अंतिम समय में गोरखा दरबार (1804-1015) की कृपा पर भी आश्रित रहे और सन 1815-1833 तक अंग्रेजी राज को भी देखा।
         मौला राम के बनाए गए चित्रों को  मौला राम आर्ट गैलरी, श्रीनगर गढ़वाल, ब्रिटेन के संग्रहालय, बोस्टन संग्रहालय अमेरिका, हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के संग्रहालय, भारत कला भवन, बनारस, अहमदाबाद, के संग्रहालय और लखनऊ, दिल्ली, कोलकाता तथा इलाहाबाद की आर्ट गैलरी में देखे जा सकते हैं।

         मौला राम की कला और साहित्य को प्रचार-प्रसार और संवर्धन की नितांत आवश्यकता है ताकि आने वाली पीढ़ी अपनी समृद्ध कला से प्रेरणा लेकर भारतीय संस्कृति को सम्पुष्ट कर सके। भारतीय संस्कृति उस समय की चित्रकला पद्धति और प्रगति सामान्य साहित्य सरलता तथा सौंदर्य को परिलक्षित करती है तत्कालीन चित्रकला में अतीत की गंभीरता और शनै-शनै आगे बढ़ती 18 वीं सदी की प्रचुर रमणीयता पाई जाती है। सांसारिक और असांसारिक विषयों को रंगों में बांधा गया है।

Wednesday, July 24, 2019

खलंगा स्मारक गोरखा सैनिकों के शौर्य की कहानी Story About Anglo-Nepali War of 1814

 खलंगा स्मारक गोरखा सैनिकों के शौर्य की कहानी Battle of Nalapani Khalanga 1814






खलंगा स्मारक द्वार
खलंगा स्मारक
deepak badhani
 शहीद बलभद्र सिंह खलंगा द्वार,  नालापानी 
           गोरखा सैनिक हमेशा से अपने शौर्य और पराक्रम के लिए जाने जाते रहे हैं। इतिहास की अनेकों गाथाएं इनकी वीरता का गुणगान करती हैं। गोरखाओं की वीरता ही है कि नेपाल देश आज तक कभी किसी बाहरी शक्ति का गुलाम नहीं हुआ। इतिहास में अनेकों बार नेपाल पर बाहरी आक्रमण हुए परंतु गोरखाओं ने अपनी एकजुटता और पराक्रम से नेपाल को हमेशा से एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाए रखा है। ऐसी ही एक कहानी है देहरादून के नालापानी के पास खलंगा पहाड़ी की-

deepak badhani
खलंगा पहाड़ी का रास्ते
 कैसे पहुंचे-
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खूबसूरत शांत जंगल खलंगा पहाड़ी 
          देहरादून में रायपुर के पास नालापानी नाम का छोटा सा गांव है, जहां से खलंगा स्मारक की दूरी मात्र 4 किलोमीटर है। नालापानी देहरादून शहर से 10 किलोमीटर दूर है, आप यहां किसी भी मौसम में आ सकते हैं। प्रतिवर्ष नवंबर माह में यहां गोरखा समुदाय द्वारा मेले का आयोजन किया जाता है।
यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं आपको जंगल, प्रकृति,  एकांत अच्छा लगता है तो यह जगह आपका इंतजार कर रही है, खूबसूरत शांत जंगलों के बीच से जाते हुए रास्ते पर अनेकों मनमोहक दृश्य हैं।

खलंगा युद्ध की कहानी-

             देहरादून की खूबसूरत पहाड़ियों मेंं से एक खलंगा पहाड़ी 31 अक्टूबर 1814 में मात्र 600 गोरखा सैनिकों ने इस पहाड़ी के ऊपर खलंगा किले पर मोर्चा संभाला था। सामने थी 3500 संख्या वाली ब्रिटिश सेना। जिनके पास उस समय की आधुनिक बंदूकें और तोपे थी। गोरखा सैनिकों के पास अपनी पारंपरिक खुखरी, तलवार और धनुष बाण थे। गोरखा सैनिकों ने खुखरी के दम पर अकेले 1000 अंग्रेज सैनिकों को मार डाला।

प्राचीन खलंगा किला
इस लड़ाई में कई अंग्रेज अफसर भी मारे गए, जिनमें मेजर जनरल रॉबर्ट रोलो जिलेप्सी भी थे। इस युद्ध में गोरखा सेना का नेतृत्व कर रहे बलभद्र कुंंवर भी शहीद हो गए। ब्रिटिश सेना द्वारा कलिंगा किले का पानी रोक दिया गया। जिस कारण बलभद्र कुंंवर अपने ६० सैनिकों के साथ किले से बाहर आ गए और अंग्रेजों से युद्ध किया अंग्रेजों द्वारा उन्हें मरा हुआ घोषित कर दिया गया। परंतु कुछ लोगों का मानना है कि बलभद्र कुंवर वहां से भाग गए थे और अफगानिस्तान में सैनिक के रूप में 1835 में युद्ध में शहीद हुए।

deepak badhani                               
मेजर जनरल रॉबर्ट रोलो जिलेप्सी                                                                              गोरखा  सेनापति बलभद्र कुंंवर                                                        




 गोरखा बटालियन की स्थापना 1815-



deepak badhani
खलंगा स्मारक 

        अंग्रेजों द्वारा गोरखा सैनिकों की बहादुरी का सम्मान किया गया। 1815 में इसी स्थान पर गोरखा सैनिकों की याद में युद्ध स्मारक बनाया गया। जिसे हम आज खलंगा स्मारक के नाम से जानते हैं। ब्रिटिश सेना में गोरखा बटालियन के नाम से एक बटालियन की स्थापना की गई। यह दर्शाता है कि ब्रिटिश सरकार गोरखाओं की वीरता का कितना सम्मान करती थी। गोरखा सैनिक सदैव युद्ध भूमि पर अपना साहस, शौर्य और पराक्रम दिखाते रहे हैं। गंगा पहाड़ी की तलहटी पर शहीद बलभद्र सिंह द्वार का निर्माण भारत सरकार द्वारा आजादी के बाद कराया गया है।
                     खलंगा स्मारक                                                                        खलंगा स्मारक  



                  भारत के पूर्व सेनाध्यक्ष से मानिक शाह ने कहा था- "यदि कोई व्यक्ति कहता है कि उसे मरने से डर नहीं लगता या तो वह झूठ झूठा है या फिर गोरखा है"।
                 इस जंगल में मोर बहुत अधिक मात्रा में पाए जाते हैं यदि आप भी देहरादून के आसपास किसी अच्छी प्राकृतिक जगह को देखना चाहते हैं तो एक बार यहां जरूर जाएं।


Saturday, July 20, 2019

कुली बेगार आंदोलन

कुली बेगार आंदोलन

कुली बेगार आंदोलन के दौरान जनसभा की तस्वीर

कुली बेगार ब्रिटिश शासन काल की  ऐसी व्यवस्था थी  जिसमें  गांव  के लोगों को  सरकार की सेवा में मजदूरी करने को बाध्य थे  वह भी बिना किसी मालगुजारी  के।   गांव के पटवारी और ग्राम प्रधान को थोड़े थोड़े समय के लिए बिना किसी पारिश्रमिक के जरूरत के हिसाब से मजदूरों को अंग्रेज अफसरों के घर और दफ्तरों में मजदूरी के लिए भेजना होता था।  सबका नंबर समान रूप से आए इसके लिए इनके पास रजिस्टर रहते थे सभी लोग अपनी अपनी बारी आने पर अंग्रेज अधिकारियों की सेवा में जाने को बाध्य थे। कभी-कभी शासक लोग इन मजदूरों से अत्यंत घृणित काम जैसे गंदे कपड़े धूल वाना शौचालय की सफाई करवाना आदि करवाते थे।।
 गढ़ केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा
कुर्मांचल/कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे


       सन 1913 में कुली बेगार यहां के निवासियों के लिए अनिवार्य कर दिया गया।  धीरे-धीरे इस प्रथा के खिलाफ पर्वतीय लोगों में असंतोष व्याप्त हो गया।  बद्री दत्त पांडे ने अल्मोड़ा अखबार के माध्यम से कुली बेगार के खिलाफ लोगों को जागरूक करने का काम किया।  14 जनवरी 1921 को मकर सक्रांति के दिन बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में श्री बद्री दत्त पांडे के नेतृत्व में लगभग 40000 लोगों की एक विशाल जनसभा हुई।। जिसमें यह निश्चित किया गया कि कुली बेगार कुली उतार अब सहन नहीं किया जाएगा।  विशाल जनसमूह ने भगवान बागनाथ की पूजा कर गोमती और सरयू के जल से भगवान बागनाथ की सौगंध खाकर प्रधानों और पटवारियों से मजदूरी के रजिस्टर लेकर गोमती और सरयू संगम में प्रवाहित कर दिए।   जिसके बाद यह विद्रोह पूरे राज्य में फैल गया.. गढ़वाल में इस आंदोलन को अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने धार दी।   कुली बेगार प्रथा समाप्त होने के बाद बद्री दत्त पांडे को कुमाऊं केसरी और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा को गढ़ केसरी का खिताब दिया गया।


पंडित गोविंद बल्लभ पंत
 हरगोविंद पंत 
       महात्मा गांधी ने इस आंदोलन को के बारे में यंग इंडिया में लिखा इसका प्रभाव संपूर्ण था यह एक रक्तहीन क्रांति थी।  जिसके बाद महात्मा गांधी ने खुद बागेश्वर और चनौंदा  में गांधी आश्रम बनवाया इस आंदोलन में पंडित गोविंद बल्लभ पंत, विक्टर मोहन जोशी, हरगोविंद पंत, श्याम लाल शाह, लाला चिरंजीलाल, बैरिस्टर मुकुंदी लाल, आदि अनेकों नेताओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। संभवतः 1857 की क्रांति के बाद यह एक प्रमुख आंदोलन रहा, जिसके द्वारा अंग्रेजों को यह एहसास हुआ कि पर्वतीय लोग उनके अत्याचारों से कितने कुंठित हैं।
कुली बेगार आन्दोलन के दौरान शक्ति समाचार पत्र की रिपोर्ट

Friday, July 19, 2019

बैरिस्टर मुकुंदी लाल

 उत्तराखंड की महान हस्ती मुकुंदी लाल  (बैरिस्टर)।



मुकुंदी लाल  (बैरिस्टर)
नाम- मुकुंदी लाल।
जन्म- 14 अक्टूबर 1885।
जन्म स्थान- पाटली गांव, मल्ला नागपुर पट्टी, जिला अल्मोड़ा, उत्तराखंड
शिक्षा- प्रारंभिक शिक्षा गांव के मिशन स्कूल में हुई। उसके बाद हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की शिक्षा रैमजे कॉलेज अल्मोड़ा से प्रथम श्रेणी में पास की। 1911 में इलाहाबाद से स्नातक की डिग्री प्राप्त की, बाद में श्री घनानन्द खंडूरी द्वारा मिली आर्थिक मदद से इंग्लैंड जाकर 1919 में बार 8 लोग की डिग्री प्राप्त की। इंग्लैंड में शिक्षा के दौरान कई दार्शनिक एवं साहित्यकारों से मिलना जुलना हुआ इंग्लैंड में मुकुंदी लाल कई दार्शनिकों के और मार्क्सवादी विचारों से प्रभावित हुए। इसी दौरान उनकी मुलाकात महात्माा गांधी से हुई।

राजनीतिक जीवन-
       सन 1919 में भारत लौटने के दौरान मुंबई पहुंचने पर मार्क्सवादी साहित्य साथ लाने के कारण खुफिया पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद इलाहाबाद पहुंचने पर कांग्रेश के बड़े नेताओं मोतीलाल नेहरू जवाहरलाल नेहरू महात्मा गांधी आदि के विचारों से प्रभावित होकर कांग्रेस की सदस्यता ली। 1919 में लैंसडाउन उत्तराखंड से वकालत प्रारंभ की 1919 में कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन में उत्तराखंड के प्रतिनिधिमंडल को साथ लेकर भाग लिया। जहां इनकी मुलाकात मोहम्मद अली जिन्ना से हुई, उत्तराखंड में 800 लोगों को कांग्रेस की सदस्यता दिलाई, 1923 एवं 1926 में बैरिस्टर के नाम से विख्यात हो चुके मुकुंदी लाल प्रांतीय काउंसिल के सदस्य के रूप में चुने गए। 1927  में  इन्हें प्रांतीय काउंसिल का उपाध्यक्ष चुना गया। 1930 में इन्होंने कांग्रेसी छोड़ दी। 1936 में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में प्रांतीय काउंसिल का चुनाव लड़ा। लेकिन पराजित हुए 1962 में गढ़वाल सीट से निर्दलीय विधानसभा चुनाव जीता। तत्पश्चात पुनः कांग्रेस में शामिल हो गए। 1967 में सक्रिय राजनीति से सन्यास  ले लिया।

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में सक्रियता-

               1919 में  स्वदेश लौटने  की बाद से ही  स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हो गए थे।  इंग्लैंड में महात्मा गांधी से मुलाकात के दौरान उनके स्वदेशी विचारों से प्रभावित हुए। 1921 में समूचे उत्तराखंड में कुली बेगार आंदोलन  आग की तरह फैल चुका था।  मुकुंदी लाल इस आंदोलन में कूद पड़े और पूरेेेे उत्तराखंड जगह-जगह घूम घूम कर लोगोंं को इस आंदोलन सेे जोड़ा और इस आंदोलन को सफल बनाने में महत्वपूर्ण निभाई। सन 1930 में बैरिस्टर मुकुंदी लाल कांग्रेस छोड़कर वीर चंद्र सिंह गढ़वाली और पेशावर कांड के सिपाहियों की पैरवी के लिए एबटाबाद चले गए। जहां अपनी दमदार पर बहस से  पेशावर कांड के सिपाहियों को फांसी की सजा से बचाने में कामयाब रहे। इसके बाद 1938 से 1943 तक यह टिहरी रियासत के हाई कोर्ट के जज रहे। फिर 16 साल अरपेन्टाइल फैक्ट्री बरेली के जनरल मैनेजर रहे।

अन्य-
           एक लेखक, पत्रकार, संपादक, संग्रहकर्ता, दूरदर्शी के रूप में इन्होंने अपना परचम लहराया। मौलाराम के चित्रों को पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मौलाराम के चित्रों के संग्रहण के ऊपर इनकी एक पुस्तक गढ़वाल पेंटिंग्स का प्रकाशन 1969 में भारत सरकार द्वारा किया गया। उत्तराखंड में मौलाराम स्कूल ऑफ आर्ट्स की स्थापना का श्रेय इन्हें ही जाता है। इन्होंने लैंसडाउन में तरुण कुमाऊं नाम से मासिक पत्रिका का संपादन और प्रकाशन किया। इसके अलावा बैरिस्टर एक कुशल शिकारी भी रहे, इन्होंने 5 शेर और 23 बाघों का शिकार किया, कोटद्वार स्थित उनके घर भारती भवन में दुर्लभ फूलों और पक्षियों का एक संग्रहालय है। बैरिस्टर ने अपने जीवन में आर्य समाजी, ईसाई, सिख, हिंदू और बौद्ध धर्म अपनाए। बुध के रूप में 10 जनवरी 1982 में निर्वाण प्राप्त हुआष बैरिस्टर मुकुंदी लाल उत्तराखंड के सच्चे सपूत थे, इनका योगदान उत्तराखंड के इतिहास में स्वर्णिम रहेगा।

Tuesday, July 16, 2019

Dedicated to Lord Shiva's elder son Kartikeya कार्तिक स्वामी मंदिर का इतिहास एवम् मान्यता !!

Dedicated to Lord Shiva's elder son Kartikeya कार्तिक स्वामी मंदिर का इतिहास एवम् मान्यता !!






कार्तिक स्वामी मंदिर देवभूमि उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में कनक चौरी गाँव से 3 कि.मी. की दुरी पर क्रोध पर्वत पर स्थित है | यह मंदिर समुद्र की सतह से 3048 मीटर की ऊँचाई पर स्थित शक्तिशाली हिमालय की श्रेणियों से घिरा हुआ है | कार्तिक स्वामी मंदिर रुद्रप्रयाग जिले का सबसे पवित्र पर्यटक स्थलों में से एक है | यह मंदिर उत्तराखंड का सिर्फ एकमात्र मंदिर है , जो कि भगवान कार्तिक को समर्पित है | भगवान कार्तिकेय का अति प्राचीन “कार्तिक स्वामी मंदिर” एक दैवीय स्थान होने के साथ साथ एक बहुत ही खूबसूरत पर्यटक स्थल भी है । मंदिर भगवान् शिव के जयेष्ठ पुत्र “भगवान कार्तिक” को समर्पित है | भगवान कार्तिक स्वामी को भारत के दक्षिणी भाग में “कार्तिक मुरुगन स्वामी” के रूप में भी जाना जाता है ।



क्रोध पर्वत पर स्थित इस प्राचीन मंदिर को लेकर मान्यता है कि भगवान कार्तिकेय आज भी यहां निर्वांण रूप में तपस्यारत हैं। मंदिर में लटकाए सैकड़ों घंटी से एक निरंतर नि वहां से करीब 800 मीटर की दूरी तक सुनी जा सकती है।यह मंदिर बारह महीने श्रद्धालुओं के लिये खुला रहता है और मंदिर के प्रांगण से चौखम्बा, त्रिशूल आदि पर्वत श्रॄंखलाओं के सुगम दर्शन होते हैं। बैकुंठ चतुर्दशी पर्व पर भी दो दिवसीय मेला लगता है। कार्तिक पूर्णिमा पर यहां निसंतान दंपति दीपदान करते हैं। यहां पर रातभर खड़े दीये लेकर दंपति संतान प्राप्ति की कामना करतेे हैं, जो फलीभूत होती है। कार्तिक पूर्णिमा और जेठ माह में आधिपत्य गांवों की ओर से मंदिर में विशेष धार्मिक अनुष्ठान भी किया जाता है।




कार्तिक स्वामी मंदिर के बारे में पौराणिक कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव ने अपने दोनों पुत्रों को भगवान कार्तिक और भगवान गणेश से यह कहा कि उनमें से एक को पहले पूजा करने का विशेषाधिकार प्राप्त होगा , जो सर्वप्रथम ब्रह्मांड का परिक्रमा (चक्कर) लगाकर उनके सामने आएगा । भगवान कार्तिकेय अपने वाहन मोर पर बैठकर विश्व परिक्रमा को निकल पड़े । जबकि गणेश गंगा स्नान कर माता-पिता की परिक्रमा करने लगे।




 गणेश को परिक्रमा करते देख शिव-पार्वती ने पूछा कि वे विश्व की जगह उनकी परिक्रमा क्यों कर रहे हैं तो गणेश ने उत्तर दिया कि माता-पिता में ही पूरा संसार समाहित है। यह बात सुनकर शिव-पार्वती खुश हुए और भगवान गणेश को पहले पूजा करने का विशेषाधिकार प्राप्त दिया | इधर विश्व भ्रमण कर लौटते समय कार्तिकेय को देवर्षि नारद ने पूरी बातें बताई तो , कार्तिकेय नाराज हो गए और कैलाश पहुंचकर उन्होंने अपना मांस माता पार्वती को और शरीर की हड्डिया पिता ह्सिव जी को सौंप निर्वाण रूप में तपस्या के लिए क्रोध पर्वत पर पहुँच गए। तब से भगवान कार्तिकेय इस स्थान पर पूजा होती है और यह माना जाता है कि ये हड्डियाँ अभी भी मंदिर में मौजूद हैं जिन्हें हज़ारों भक्त पूजते हैं




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