Saturday, July 20, 2019

कुली बेगार आंदोलन

कुली बेगार आंदोलन

कुली बेगार आंदोलन के दौरान जनसभा की तस्वीर

कुली बेगार ब्रिटिश शासन काल की  ऐसी व्यवस्था थी  जिसमें  गांव  के लोगों को  सरकार की सेवा में मजदूरी करने को बाध्य थे  वह भी बिना किसी मालगुजारी  के।   गांव के पटवारी और ग्राम प्रधान को थोड़े थोड़े समय के लिए बिना किसी पारिश्रमिक के जरूरत के हिसाब से मजदूरों को अंग्रेज अफसरों के घर और दफ्तरों में मजदूरी के लिए भेजना होता था।  सबका नंबर समान रूप से आए इसके लिए इनके पास रजिस्टर रहते थे सभी लोग अपनी अपनी बारी आने पर अंग्रेज अधिकारियों की सेवा में जाने को बाध्य थे। कभी-कभी शासक लोग इन मजदूरों से अत्यंत घृणित काम जैसे गंदे कपड़े धूल वाना शौचालय की सफाई करवाना आदि करवाते थे।।
 गढ़ केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा
कुर्मांचल/कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे


       सन 1913 में कुली बेगार यहां के निवासियों के लिए अनिवार्य कर दिया गया।  धीरे-धीरे इस प्रथा के खिलाफ पर्वतीय लोगों में असंतोष व्याप्त हो गया।  बद्री दत्त पांडे ने अल्मोड़ा अखबार के माध्यम से कुली बेगार के खिलाफ लोगों को जागरूक करने का काम किया।  14 जनवरी 1921 को मकर सक्रांति के दिन बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में श्री बद्री दत्त पांडे के नेतृत्व में लगभग 40000 लोगों की एक विशाल जनसभा हुई।। जिसमें यह निश्चित किया गया कि कुली बेगार कुली उतार अब सहन नहीं किया जाएगा।  विशाल जनसमूह ने भगवान बागनाथ की पूजा कर गोमती और सरयू के जल से भगवान बागनाथ की सौगंध खाकर प्रधानों और पटवारियों से मजदूरी के रजिस्टर लेकर गोमती और सरयू संगम में प्रवाहित कर दिए।   जिसके बाद यह विद्रोह पूरे राज्य में फैल गया.. गढ़वाल में इस आंदोलन को अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने धार दी।   कुली बेगार प्रथा समाप्त होने के बाद बद्री दत्त पांडे को कुमाऊं केसरी और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा को गढ़ केसरी का खिताब दिया गया।


पंडित गोविंद बल्लभ पंत
 हरगोविंद पंत 
       महात्मा गांधी ने इस आंदोलन को के बारे में यंग इंडिया में लिखा इसका प्रभाव संपूर्ण था यह एक रक्तहीन क्रांति थी।  जिसके बाद महात्मा गांधी ने खुद बागेश्वर और चनौंदा  में गांधी आश्रम बनवाया इस आंदोलन में पंडित गोविंद बल्लभ पंत, विक्टर मोहन जोशी, हरगोविंद पंत, श्याम लाल शाह, लाला चिरंजीलाल, बैरिस्टर मुकुंदी लाल, आदि अनेकों नेताओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। संभवतः 1857 की क्रांति के बाद यह एक प्रमुख आंदोलन रहा, जिसके द्वारा अंग्रेजों को यह एहसास हुआ कि पर्वतीय लोग उनके अत्याचारों से कितने कुंठित हैं।
कुली बेगार आन्दोलन के दौरान शक्ति समाचार पत्र की रिपोर्ट

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