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Tuesday, July 27, 2021

हरेला प्रकृति के साथ रिश्तो का पर्व

 हरेला मूल रूप से उत्तराखण्ड  के कुमाऊँ क्षेत्र में मनाया जाता है। हरेला पर्व 1 साल में तीन बार मनाया जाता है..........

1. पहली बार चैत्र महीने में पहले दिन बोया जाता है और नवमी के दिन काटा जाता है।

2. दूसरा सावन के महीने में सावन लगने के 9 दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और सावन महीने के पहले दिन काट दिया जाता है।

3. तीसरा अश्विन माह में नवरात्र के पहले दिन बुरा जाता है और दशहरे के दिन काट दिया जाता है।

चैत्र और आश्विन महीने में मौसम का सूचक है-



    लेकिन श्रावण माह में मनाये जाने वाला हरेला सामाजिक रूप से अपना विशेष महत्व रखता तथा समूचे कुमाऊँ में अति महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक माना जाता है। जिस कारण इस अन्चल में यह त्यौहार अधिक धूमधाम के साथ मनाया जाता है। जैसाकि हम सभी को विदित है कि श्रावण माह भगवान भोलेशंकर का प्रिय माह है, इसलिए हरेले के इस पर्व को कही कही हर-काली के नाम से भी जाना जाता है। क्योंकि श्रावण माह शंकर भगवान जी को विशेष प्रिय है। यह तो सर्वविदित ही है कि उत्तराखण्ड एक पहाड़ी प्रदेश है और पहाड़ों पर ही भगवान शंकर का वास माना जाता है। इसलिए भी उत्तराखण्ड में श्रावण माह में पड़ने वाले हरेला का अधिक महत्व है। दैनिक जागरण रुद्रपुर के पत्रकार मनीस पांडे ने बताया कि हरेला पर्व उत्तराखंड के अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश में भी हरियाली पर्व के रूप में मनाया जाता है। हरियाली या हरेला शब्द पर्यावरण के काफी करीब है। ऐसे में इस दिन सांस्कृतिक आयोजन के साथ ही पौधारोपण भी किया जाता है। जिसमें लोग अपने परिवेश में विभिन्न प्रकार के छायादार व फलदार पौधे रोपते हैं।

    सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में हरेला बोने के लिए किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी का चयन किया जाता है। इसमें मिट्टी डालकर गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि 5 या 7 प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह को पानी छिड़कते रहते हैं। दसवें दिन इसे काटा जाता है। 4 से 6 इंच लम्बे इन पौधों को ही हरेला कहा जाता है। घर के सदस्य इन्हें बहुत आदर के साथ अपने शीश पर रखते हैं। घर में सुख-समृद्धि के प्रतीक के रूप में हरेला बोया व काटा जाता है! इसके मूल में यह मान्यता निहित है कि हरेला जितना बड़ा होगा उतनी ही फसल बढ़िया होगी! साथ ही प्रभू से फसल अच्छी होने की कामना भी की जाती है।



हरेला गीत

इस दिन कुमाऊँनी भाषा में गीत गाते हुए छोटों को आशीर्वाद दिया जाता है –

जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये,
हिमाल में ह्यूं छन तक,
गंग ज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये,
अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो।”

Tuesday, March 3, 2020

कुमाऊंनी होली एक परंपरा विरासत ऐतिहासिक उत्सव

 कुमाऊनी होली

 उत्तराखंड राज्य में कुमाऊं क्षेत्र में होली का त्यौहार एक अलग अंदाज में मनाया जाता है। कुमाऊं क्षेत्र में होली का अलग ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व है। पहाड़ी क्षेत्रों में इस समय सर्दी के मौसम का अंत होता है और नई फसल की बुवाई का समय होता है। कुमाऊं क्षेत्र में होली का त्योहार बसंत पंचमी के दिन शुरू हो जाता है ।


होली  के प्रकार

कुमाऊं में होली तीन प्रकार से मनाई जाती है - 1. बैठकी होली 2. खड़ी होली 3. महिला होली यहां होली में केवल अबीर गुलाल का टीका ही नहीं लगता, वरन बैठकी होली और संगीत गायन की परंपरा का भी विशेष महत्व है।

 इतिहास

 कुमाऊनी होली का आरंभ मुख्य रूप से 15 वी शताब्दी में चंपावत और इसके आसपास के क्षेत्र में  चंद राजाओं के शासनकाल में हुई चंद राजवंश के प्रसार के साथ-साथ यह परंपरा संपूर्ण कुमाऊं क्षेत्र में फैल गई।

 बैठकी होली

 बैठकी होली मुख्य रूप से अल्मोड़ा और नैनीताल के मुख्य बड़े नगरों में ही मनाई जाती है, इसमें होली आधारित गीत हारमोनियम और ढोलक के साथ गाए जाते हैं। पुरुष और महिलाएं एक साथ मिलकर घरों-घरों में घूम कर अथवा किसी एक जगह एकत्रित होकर होली गीतों का गायन करते हैं। कुमाऊं के प्रसिद्ध जनकवि गिरीश गिर्दा ने बैठकी होली के कई गीत लिखे हैं, बैठकी होली में मुख्य रूप से मीराबाई से लेकर नजीर और बहादुर शाह जफर के गीत गाए जाते हैं।


 खड़ी होली 

होली त्यौहार के कुछ दिन पहले से खड़ी होली होती है।  कुमाऊं क्षेत्र की खड़ी होली पूरे भारतवर्ष में चर्चित है इसका प्रसार कुमाऊं के ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलता है, इसमें ग्रामीण पुरुष टोपी और कुर्ता पजामा पहन कर ढोल दमाऊ तथा हुड़के की धुनों पर गीत गाते हैं और नाचते हैं। खड़ी होली के अधिकांश गीत कुमाऊनी भाषा में  होते हैं। होली गाने वाला दल जिन्हें स्थानीय भाषा में होल्यार कहा जाता है, बारी-बारी से गांव के प्रत्येक घर में जाकर होली गीत गाते हैं और उनकी समृद्धि की कामना करते हैं।



 महिला होली 

महिला होली में बैठकी होली की तरह गीत गाए जाते हैं, लेकिन इसमें केवल महिलाएं ही घर-घर जाकर होली गीत गाती हैं। यह कुमाऊं के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में अत्यधिक प्रचलित है।


 चीड़ बंधन 

होलिका दहन के लिए कुमाऊं में छरड़ी के कुछ दिन पहले चीड़ की लकड़ियों से होलिका का निर्माण किया जाता है। जिसे चीड़ बंधन कहा जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में चीड़ बंधन के बाद अपने होलिका की रक्षा अन्य गांव के लोगों से करनी पड़ती है, ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित है दूसरे गांव की होलिका से चीड़ की लकड़ियां चुरा ली जाती हैं।

 चीड़ दहन 

 मुख्य होली के 1 दिन पहले रात को होलिका दहन किया जाता है, जिसे चीड़ दहन कहा जाता है, चीड़ दहन प्रहलाद की हिरण्यकश्यप के विचारों पर जीत का प्रतीक माना जाता है।


 छरड़ी  (छलेड़ी  धुलेड़ी)

   यह मुख्य होली का दिन है इस दिन गांव के लोग एक दूसरे पर रंग अबीर गुलाल लगाते हैं,  पारंपरिक तौर पर टेसू के फूलों को धूप में सुखाकर पानी में घोला जाता है जिससे लाल रंग का छरड़ प्राप्त होता है, जिससे कुमाऊं क्षेत्र में होली खेली जाती है। इसीलिए कुमाऊं में होली को छरड़ी कहा जाता है


 होली के अगले दिन होली टीका त्योहार मनाया जाता है इस दिन घरों में पकवान बनाए जाते हैं।